राष्ट्रपिता गाँधी जी की एक सुप्रसिद्ध पंक्ति है कि भारत गाँवो में बसता है । यानि यदि आपको भारत के दर्शन करने हैं तो आप किसी गाँव में चले जाइए। गाँधी जी ने ये बात दृढ़ता के साथ शायद इसलिए कही होगी कि किसान और मजदूर वर्ग जो सम्पूर्ण देश का पेट पालता है, वो गाँवो में निवास करता है और उसकी स्थिति अभी भी दयनीय है। लेकिन अब वही 'भारत' ट्रेनों की सामान्य (द्वितीय श्रेणी) बोगियों में शिफ्ट हो गया है।
त्योहारों में अपने घरों को लौटते मजदूर रेलगाड़ियों के शौचालयों में बैठकर यात्रा करने के लिए मजबूर हैं। देश की बढ़ती जनसंख्या के साथ भले ही सरकार त्योहारों पर स्पेशल ट्रेनें चलवा रही हो लेकिन भारी संख्या में घर लौटते मजदूरों के लिए ट्रेनों में मुश्किल से मिले सामान्य श्रेणी के दो डिब्बे पर्याप्त नहीं है। यह स्थिति सिर्फ त्योहारों की नहीं है बल्कि पूरे बारहमास की है।
रेलवे प्रशासन ना ही इन समस्याओं का कोई हल निकाल रहा है, बल्कि ट्रेनों में सामान्य और स्लीपर कोच के डिब्बों की कटौती भी कर रहा है । सेकंड क्लास व स्लीपर के कोच कम करके एसी कोच बढ़ाए जा रहे हैं। पिछले एक दशक में एसी कोच 9.8% बढ़े हैं, जबकि स्लीपर कोच 2.8% और सेकंड क्लास के डिब्बे 6.6% कम हो गए हैं। इसी वजह से सेकंड क्लास में यात्रा करने वाले 85.3% से 8.7% घटकर अब 76.6% पर आ गए हैं।
भारतीय रेलवे इसके पीछे की वजह रेलवे का घाटे में होना बता रही है। अभी उसे प्रति 100 रु. कमाने के लिए 107 रु. खर्च करने पड़ रहे हैं। 2015 से 2020 के बीच एसी थर्ड क्लास को छोड़ दें तो सभी क्लास से नुकसान हुआ है। इसलिए, कई ट्रेनों में स्लीपर या जनरल के कुछ डिब्बे हटाकर उनकी जगह एसी कोच बढ़ाए जा रहे हैं। इसका असर यह है कि स्लीपर व सेकंड क्लास में यात्रा करने वालों को या तो ज्यादा किराया देकर एसी कोच का टिकट लेना पड़ रहा है या फिर यात्रा का कोई और साधन खोजना पड़ रहा है।
वंदे भारत जैसी आधुनिक तकनीकों से लैस ट्रेनें भले ही देश की छवि में चार चांद लगा रही हैं, लेकिन आम नागरिक के लिए उनमें सफ़र करना अभी भी सपने जैसा है। ऐसे में देश के सामान्य नागरिकों के लिए भी ट्रेनों में स्लीपर या सामान्य श्रेणी की बोगियां बढ़ाए जाने की जरूरत है। जिससे वो भी एक आरामदायक सफर कर सके।
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