भारत में जैसे ही चुनावी मौसम करवटें बदलता हुए दिखाई देता है वैसे ही राजनीतिक पार्टियां लोकलुभावन वादे करना प्रारंभ कर देती हैं। पार्टियों की इन अतरंगी घोषणाओं से विकास की संभावनाएं भले ही दिखाई ना दें लेकिन जनता की आँखे ज़रूर चमक उठती हैं। ऐसा ही कुछ इस चुनावी बयार में भी देखने को मिल रहा है। सभी राजनीतिक पार्टियां मुफ़्त की पेशकश देने में एक दूसरे को मात देती हुई नज़र आ रही हैं।
हाल ही में इसका ताज़ा उदाहरण मध्य प्रदेश में कांग्रेस द्वारा ज़ारी किए गए घोषणा पत्र में देखने को मिलता है। इस घोषणा पत्र में किसानों की कर्ज़ माफ़ी से लेकर सौ यूनिट बिजली मुफ़्त करने तक के वादे किए गए हैं। इतना ही नहीं इस घोषणा पत्र में पुरानी पेंशन लागू करने की बात भी कही गई है । वहीं दूसरी ओर मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए बीजेपी भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। मध्यप्रदेश में जहां उसने बिजली पर सब्सिडी देने की बात कही वहीं इससे पूर्व पंजाब विधानसभा चुनाव में भी उसने प्रत्येक परिवार को 300 यूनिट बिजली मुफ़्त देने का वादा किया था। इस खेल में भाजपा और कांग्रेस ही अकेली खिलाड़ी नहीं है बल्कि कई क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियां भी इस संस्कृति को बढ़ावा देती नज़र आ रही हैं।
भारत में बढ़ती रेवड़ी संस्कृति के द्वारा सरकारी ख़ज़ाने पर बढ़ता बोझ विकास के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा बनता जा रहा है। युवाओं को ख़ासकर इस मुफ़्त की रेवड़ी से बचकर रहने की आवश्यकता है। शिक्षा, रोज़गार और चिकित्सा जैसे मूल भूत मुद्दों से ध्यान हटाकर राजनीतिक पार्टियां अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस प्रकार की पेशकश करती हैं और करें भी क्यों ना जब इसके अच्छे परिणाम भी उन्हें देखने को मिल रहे हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के द्वारा पोषित यह संस्कृति पार्टी के लिए हमेशा से सुखद परिणाम देती आई है।
अपने राजनीतिक निहितार्थ के लिए राजनीतिक पार्टियां देश की पूंजी इन मुफ़्त की घोषणाओं को पूरा करने में ही खर्च कर देती हैं और स्कूल,सड़के, अस्पताल और कई ज़रूरी परियोजनाओं के लिए सरकारी ख़ज़ाना ख़ाली हो जाता है। यही कारण है कि आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी इस देश की स्थिति अभी भी डाँवाडोल है।
ऐसे में यदि एक पार्टी मुफ़्त की पेशकश ना भी करे तो इसका सीधा फ़ायदा दूसरी पार्टी के पक्ष में जाना तय है । एक ओर जहां पार्टियां दूसरी पार्टी के वादों को ख्याली पुलाव घोषित कर रही है तो दूसरी ओर ख़ुद भी वादे करने से बाज़ भी नहीं आ रही हैं। यह तय है कि ऐसे माहौल में रेवड़ी संस्कृति का चलन बढ़ता ही जायेगा जब तक कि इसके ऊपर कोई ठोस कदम ना उठाएं जाएं। इसके लिए आवश्यक है कि चुनाव आयोग या उच्चतम न्यायालय इस मुद्दे पर अपनी पकड़ मजबूत करे जिससे जन कल्याण के मुद्दे जनता के सामने आएं और कोई भी पार्टी लोकलुभावन वादों की आड़ में देश के आर्थिक नियमों से छेड़छाड़ ना कर पाए। साथ ही मतदाताओं को भी ये समझना जरूरी है कि वो जरूरी और मूलभूत मुद्दों पर ही अपना मत दें जिससे विकास का मार्ग प्रशस्त हो सके।
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